शिक्षित बेरोज़गारी के दस साल 

आज शिक्षित बेरोज़गारी के दस साल पूरे हो रहे हैं. 1 अप्रैल 2012 से शुरू किया था. शुरू क्या किया था, बस हो गया था.
आराम से बैठकर तनख्वाह उठाने में शर्म सी आने लगी थी और किताब को किसी भी तरह से पूरा करके छपवाने का जुनून सिर पर सवार था.
ये तो कभी नहीं सोचा था कि शिक्षित बेरोज़गारी में यूँही दस साल गुज़र जाएंगे. हल्का फुल्का प्लान ये था कि किताब लिखेंगे, छपवाने की कोशिश करेंगे और फिर उसके बाद देखा जाएगा.
अब ज़िन्दगी कोई कंप्यूटर प्रोग्राम तो है नहीं कि जब तक सारी कोडिंग ठीक से न की गयी हो, तो चलेगी नहीं. इसलिए चल गयी.
किताब तो छप गई. एक नहीं तीन. अंग्रेज़ी वालों ने ट्राइलॉजी बना दिया. और धीरे धीरे काम भी आने लगा. पहले थोड़ा थोड़ा और फिर अचानक से बहुत सारा.
जब किताब छप गयी, फिर अलग अलग अख़बारों और websites पर छपने के जूनून ने तूल पकड़ा. एक समय ये भी था जब हफ़्ते में दस बारह कॉलम तो छप ही जाते थे.
दैनिक जागरण से लेकर डेक्कन क्रॉनिकल तक और बैंगलोर मिरर से लेकर बीबीसी तक, सब जगह मेरे लेख छपे. हिंदी में अर्थशास्त्र पर लिखने की आदत भी बनायी. (जी. GST को माल और सेवा कर कहते हैं और फिस्कल डेफिसिट को राजकोषीय घाटा).
इसके अलावा काफी नामचीन प्रबंधन विद्यालयों (business schools) में लेक्चर देने का मौका भी मिला. अहमदाबाद से बेंगलुरु तक, मुंबई से मणिपाल तक और रोहतक से लेकर रांची तक.
आजकल थोड़ा स्लो चल रहा हूँ. सलीम ख़ान को कहीं ये कहते सुन लिया था कि पैसे ना कहने के मिलते हैं. तो अपनी ज़िन्दगी में ये प्रयोग कर रहा हूँ. आशा करता हूँ आने वाले सालों में ख़ान साहब की कही बात थोड़ी बहुत तो सही निकलेगी.
इस सफर में दिल्ली के बाहर के संपादकों ने बहुत साथ दिया, खासकर मुंबई और बेंगलुरु के संपादकों ने. यहाँ ये भी कहना ठीक रहेगा कि दसवे साल में दिल्ली का दरवाज़ा भी धीरे धीरे खुलने लगा है, अब देखना ये है कि ये दरवाज़ा कितना खुलता है और कब तक खुला रहता है.
आजकल मन में ये सवाल बहुत आता है कि शिक्षित बेरोज़गारी का निर्णय सही था या फिर नौकरी करते रहना चाहिए था?
लगभग हर दिन लिख कर दुनिया को ये चिल्ला चिल्ला के बताना के भाई पढ़ो, हमने लिखा है, इस का अंत में क्या हश्र होगा?
हमारे लिखने से कभी कुछ बदलता भी है क्या?  क्या कीबोर्ड तलवार से वाकई ज़्यादा शक्तिशाली है? या फिर paywall ने बीच में आकर गेम बजा डाली है?
या फिर सोशल मीडिया के ज़माने में, where you can flood WhatsApp with shit, दो एक लोगों के लिखने या न लिखने से क्या ही फरक पड़ता है?
या फिर क्या कोई भी काम करने के लिए किसी गहरी वज़ह का होना ज़रूरी होता है क्या? या फिर कुछ लोग साबुन बेचते हैं, और कुछ लोग शब्द? और ग़लतफहमी तो सबको होती है. मुझे भी है. नहीं तो मैं अभी भी किसी आईटी कंपनी का मुलाज़िम होता.
ऐसे सवालों के कोई आसान जवाब तो होते नहीं और ज़िन्दगी  में केवल सोच प्रतितथ्यात्मक (counterfactual) हो सकती है.

अब इस बात पर एक शेर याद आ गया. जैसा चचा ग़ालिब कह गए हैं:

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता .

और अंत मे नास्तिक होते हुए भी ये प्रार्थना करता हूँ कि पाठकों, सम्पादकों और सबसे ज़्यादा प्रबंधकों और मुनीमों की मुझ पर कृपा बनी रहे. कहिये तो Chivas Regal चढ़ा आता हूँ.
हाँ और शिक्षित बेरोज़गारी की दो चीज़ें हमेशा मुझे प्रेरित करती रही रहेंगी, एक तो इसकी आज़ादी और दूसरी केवल अपने प्रति और अपने पाठकों के प्रति जवाबदेह होना.
अब हर दिन तीन से चार बजे तक सोना का मज़ा तो वो ही जानते हैं जो हर दोपहर को सोते हैं. आप भी कभी करके देखिए, मज़ा आएगा. और जब आप सो कर उठेंगे मुझसे मिलिएगा ज़रूर, बुत बनकर बैठेंगे.
मैं शब्द बेचता हूँ. आप ज़रूर खरीदते रहिएगा क्यूंकि अब बेरोज़गारी हमारे खून के ज़र्रे ज़र्रे में बस चुकी है.

कोरोना काल में छोटू बाबू की बड़ी शादी

शाम के पौने सात बजे थे. बिजली कटी हुई थी. पूरी गली में अँधेरा छाया हुआ था. 
पर प्रोफेसर पी के श्रीवास्तव का घर दूधिया रोशनी में समझो नहा सा रहा था. उनके बड़े बेटे छोटू की शादी थी. 
अमूमन तो छोटे बेटे का नाम छोटू रखा जाता है. पर यहां हुआ ऐसा था कि जब छोटू पैदा हुआ तो वो इतना छोटा था कि लोगों ने उसका नाम छोटू रख दिया. भाई मोहल्ले का भी कुछ हक़ तो बनता ही था प्रोफेसर साहब पर. 
खैर फ़िलहाल छोटू को रहने दीजिये, काम की बात करते हैं. 
पूरी गली में अँधेरा था तो प्रोफेसर सब घर टिमटिमा कैसे रहा था? उसके लिए आपको प्रोफेसर साहब के छोटे साले लल्लन को धन्यवाद देना पड़ेगा. लल्लन जी ने पीछे के फेज से बिजली खींच ली थी. अगर बिजली खींचने में कोई यूनिवर्सिटी पीएचडी वगैरह देती है तो लल्लन को तो ज़रूर मिलना चाहिए. 
“बहुत बढ़िया बिजली खींचे हो लल्लन,” प्रोफेसर साहब ने लल्लन से कहा. 
लल्लन ने इसका जवाब अजीब तरह से मुस्कुरा के दिया. ये वैसी ही मुस्कराहट थी जो मिडिल एज्ड भारतीय आदमियों में अक्सर पायी जाती है, जब वो कुछ कहना चाहते हैं पर कह नहीं पाते हैं. 
“क्या हुआ?” प्रोफेसर साहब ने पुछा. वो समझ गए कि लल्लन कुछ कहना चाह रहा है. 
“जीजाजी वो व्यवस्था हो गयी है ना?” लल्लन ने एकदम लजा लजा के पुछा, जैसे की किसी की शादी में पहली बार दारु पीने वाले हों. 
“हाँ, आखरी वाली कार में सब रखवा दिया है. ओल्ड मोंक, वैट 69, सब कुछ.” 
“और चखना वगैरह?”
“उसका भी बंदोबस्त हो गया है. समधी जी को गाडी का नंबर दे दिया है. जैसे ही हम लोग बरातघर पहुंचेंगे, सेवा शुरू हो जाएगी. चिल्ली चिकन वगैरह सब.” 
इससे पहले की लल्लन कुछ कह पाते, कमरे में, छोटू, बड़े ही गुस्सैल मूड में घुसा. 
अब थोड़ा सा आपको दूल्हे राजा के बारे में भी बता दे. 
छोटू दिल्ली यूनिवर्सिटी से पढ़े थे. पिताजी का बहुत अरमान था कि आईएएस अफसर बने. दो एटेम्पट दे चुके थे. दूसरी बार mains भी क्लीयर हुआ था. इंटरव्यू में वो थोड़ा लड़खड़ा गए थे. पैनल में दो लेडीज़ थी और उनके सामने छोटू जी ने एकदम चुप्पी साध ली थी. 
खैर, mains क्लीयर करने के बाद, पूरे मोहल्ले में उनका बहुत नाम हो गया था. लोग छठवीं-सातवीं के बच्चों को लेकर छोटू के पास करियर एडवाइस मांगने आते थे. 
इन सब चीज़ों से ज़्यादा मैरिज मार्किट में छोटू का वैल्यू बहुत बढ़ गया था. इस साल mains क्लीयर अगले साल कलेक्टर भी बनेगा, पंडित ये बोल बोल कर रिश्ते फिक्स करने की कोशिश कर रहा था. 
प्रोफेसर साहब ने ये सोचा की अभी छोटू का वैल्यू ऊपर है, इसलिए उसे भंजा लेना चाहिए. क्या पता कलेक्टर बने या न बने? प्रोफेसर साहब ने तो शहर के सबसे बड़े आईएएस कोचिंग सेंटर वाले से भी बात कर रखी थी. अगर तीसरा एटेम्पट भी बेकार गया तो छोटू को वहां लगवा देंगे. 
और छोटू की उम्र भी हो रही थी. ऐसे तो तीस साल के थे पर सर्टिफिकेट पर 27 की उम्र थी. इसकी वजह से शादी में प्रॉब्लम भी हो गयी थी. जिस लड़की से बात चल रही थी, उसकी उम्र सर्टिफिकेट पर 28 थी. फिर बातों बातों में पता चला की लड़की असल में 29 की है और मामला सुलझ गया. 
छोटू जी बहुत गरम थे. 
“पापा, आप भी कौन से बैंड वाला लेकर आ गए हैं.”
“क्यों, जमाल बैंड है. हमारी शादी में भी यहीं बजाया था.” 
इससे पहले की छोटू कुछ कह पाता लल्लन बीच में कूद पड़े. 
“क्या बढ़िया बढ़िया गाना बजाता है. आज मेरी यार की शादी है. मेरी देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती…” 
“सब पुराना गाना है,” छोटू ने कहा. 
“अरे क्या पुराना है. यही सब गाना पर तो नागिन डांस होता है. अब क्या हम लोग तुमरा शादी में नागिन डांस भी नहीं करेंगे,” लल्लन ने थोड़ा गरम होकर जवाब दिया. 
“पापा, पर दोस्त सब कैसे नाचेगा. वो लोग को ई सब गाना नहीं बुझायेगा.”
“क्या करें फिर?” प्रोफेसर साहब ने पुछा. 
“एक ठो डीजे बुला ले?”
“डीजे?” प्रोफेसर साहब थोड़ी सोच में पड़ गए. “किसको बुलाओगे?”
“अरे पीछे वाली गली मैं पुट्टुवा रहता है ना? 
“कौन पुट्टु? वो जो चार बार एटेम्पट दिया?”
“हाँ वही पापा।”
“डीजे बन गया है आजकल वो?”
“हाँ पापा, बहुत जोरदार बजाता है. डीजे वाले बाबू मेरा गाना चला दे. डीजे वाले बाबू मेरा गाना चला दे.” 
“अच्छा बुला लो.”
प्रोफेसर साहब की इतनी कहने कि देर थी और छोटू उछलते कूदते हुए कमरे से बाहर निकल गया. 
उसके निकलते ही प्रोफेसर साहब ने लल्लन से कहा: “जाओ देखो तुम्हारी दीदी तैयार है कि नहीं.”
“हाँ जीजाजी,” कहकर लल्लन कमरे से निकल गया. 
प्रोफेसर साहब ने अपना मोबाइल फ़ोन निकाला और समधी को फ़ोन लगाया. 
“बस आपका ही इंतज़ार कर रहे हैं,” समधी जी ने जवाब दिया. 
“अच्छा, थोड़ी सी समस्या हो गयी है.”
“क्या समस्या?”  समधी जी ने घबरा कर पुछा, आखिर लड़की की शादी का मामला था.  
“अरे छोटू बाबू को अब डीजे भी चाहिए.”
“तो इस में क्या है. बुला लीजिये. एक ही बार तो हमारी बेटी से शादी करेगा. तो थोड़ा नाच गाना तो होगा ही.”
“धन्यवाद्,” प्रोफेसर साहब ने जवाब दिया.
“अरे आपका बेटा हमारा बेटा।” 
“हम लोग एक घंटे में पहुँच जाएंगे,” ये कहकर प्रोफेसर साहब ने फ़ोन काट दिया. 
प्रोफेसर साहब का फ़ोन काटते ही समधी जी उठे और अपनी पत्नी को खोजते हुए निकले. 
“अरे रश्मी, खाने का 50 प्लेट और कम करना पड़ेगा.”
“काहे?” पत्नी ने थोड़ा इर्रिटेट होकर पुछा. 
“छोटू बाबू को डीजे चाहिए.”
“ओह.” 
“भाई हम आरबीआई में केवल क्लर्क थे, नोट छापने की मशीन आरबीआई के पास है हमारे पास नहीं.”
आधे घंटे बाद. 
छोटू की बारात रोड पर है बरातघर की तरफ, कछुए की रफ़्तार से बढ़ रही है. 
डीजे वाले बाबू तेरा गाना चला दे, बार बार बज रहा है. एक बार डीजे बजा रहा है. एक बार जमाल बैंड. दोनों में प्रतिस्पर्धा चल रही है. 
लल्लन नागिन डांस करने में लगे हुए हैं. पर तोंद इतने निकल गयी है कि कम्बख्त हाथ ज़मीन नहीं छू पा रहे हैं. 
इतने में धमाका टीवी के रिपोर्टर राजू जो वहां से गुज़र रहे हैं, बारात में इतने सारे लोग देख कर चकित रह गए हैं. कोरोना काल में सरकार ने बारात में परमिशन तो केवल 50 लोगों की दी है. पर यहाँ तो कम से कम 200 लोग चल रहे हैं. 
रिपोर्टर राजू माइक लेकर अपने कैमरामैन के साथ जल्दी जल्दी दूल्हे के घोड़े की तरफ भागे. 
छोटू टीवी रिपोर्टर को देखकर बहुत  खुश होता है, घोड़े से नीचे उतरता है उससे बात करने के लिए.
“कितने लोगों का बारात है?” रिपोर्टर राजू पूछता है. 
“अब सर, डेढ़ दू सौ लोग तो जइबे करेगा न बरात में,” मुँह में गुटका दबाये हुए, छोटू जवाब देता है. 
“और अगर इसकी वजह से कोरोना फैल गया तो कौन ज़िम्मेवार होगा?” रिपोर्टर राजू पूछता है. 
“कोरोना वरोना कुछ नहीं है.”
“मतलब?”
“अरे होता तो इतना बड़ा बड़ा रैली करते नेताजी.” 
“एह?”
“और हम अंग्रज़ी अखबार पढ़ते हैं. अभी अभी इंडियन एक्सप्रेस में भल्ला और भसीन ने लिखा कि रैली से कोरोना नहीं फैलता है.”
राजू का सर घूमने लगा. 
“जब रैली से कोरोना नहीं फैलता है तो बारात से कैसे फैलेगा?”
राजू का सर और भी घूमने लगा. 
“सब पप्पू का साज़िश है. वही फैला रहा है ये सब नेगेटिविटी. ज़रा पॉजिटिव बात कीजिये सब अच्छा होगा.”
राजू का सर पूरी तरह से घूम जाता है और अपने कैमरामैन से कहता है: “ज़रा माइक धरो.”
और इसके बाद वो छोटू को पीटने लगता है. 
बारात नाचने में मस्त है, जैसी की शादी न हो मैय्यत में आये हो, और सब के सब लगाए हुए हों. 
जब तक बारात को समझ आता है क्या हो रहा है, लाइव टीवी पर छोटू पिट चूका होता है. 
 
इस कहानी का अंत यहाँ से इंस्पायर्ड है. 

शर्मा जी, वर्मा जी एंड द रिटर्न ऑफ़ कोरोना

सुबह के साढ़े पांच पौने छे बजे थे. सूरज धीरे धीरे निकलने का प्रयत्न कर रहा था. 
वर्मा जी अपने घर के बगान में गरम पानी लेकर कुर्सी पर अभी अभी बैठे थे. गरम पानी मोशन सुधारने के लिए नहीं था. उसमें वर्मा जी ग्रीन टी का एक बैग डुबोने वाले थे. 
twinings ग्रीन टि का बड़ा डब्बा दो दिन पहले छोटी बहु ने अमेज़न से भिजवाया था.
“पापा आपकी तोंद फिर से निकल आयी है,” बड़े प्यार से वो बोली थी. “थोड़ा सुबह उठकर ग्रीन टी पीजिये.” 
इस पर मिसेज वर्मा खिसिया कर बोली: “हाँ, अब तो आप हमारे हाथ की बनी चाय भी नहीं पियेंगे.” पहले तो केवल बेटे को खो देने का गम था. अब पति भी हाथ से निकला जा रहा था. 
इतने में शर्मा जी अपने घर से पूरी तरह तैयार हो कर सुबह की सैर करने के लिए निकले. और जब लोग मुँह पर दो दो मास्क लगा रहे हैं, उन्होंने ने एक भी लगाने की गुंजाईश नहीं की थी. 
“अरे शर्मा जी मास्क तो लगा लीजिये,” वर्मा जी ने पुकारा. 
“भाई हम दो दिन पहले ही गंगा जी में डुबकी लगाए हैं,” शर्मा जी ने जवाब दिया. 
“अच्छा तब तो ठीक है.”
“हाँ.”
“वैसे भी मिश्रा जी अभी दो दिन पहले…”
“कौन वाला मिश्रा, पान वाला या गुटका वाला?” शर्मा जी ने पुछा. 
“पान वाला.”
“हाँ फिर ठीक है.” 
“क्यों?” वर्मा जी ने पुछा. 
“अरेु ऊ गुटका वाला बहुत थूकता है हर जगह.” 
“अब का करेगा, गुटका का पीक मुंह में थोड़े रखा रहेगा.” 
“छोड़िये. आप क्या कह रहे थे?” शर्मा जी ने पुछा.  
“हाँ तो मिश्रा जी एक ठो फॉरवर्ड भेजे थे व्हाट्सप्प पर.”
“अच्छा.”
“उसमें ऐसा लिखा था कि, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में रिसर्च हुआ है…”  
“अब ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में रिसर्च नहीं होगा तो का रांची यूनिवर्सिटी में होगा?” शर्मा जी ने टोका और फिर अपने ही चुटकुले पर ज़ोर ज़ोर से हसने लगा. “आप भी न वर्मा जी.” 
“अरे आप बोलने तो दीजिये.” 
“अच्छा, बोलिये बोलिये.” 
“तो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में एक ठो रिसर्च हुआ है. उसमें ये पाया गया कि गंगा जी में डुबकी लगाने से बॉडी में ऐसा ऐसा मिनरल आ जाता है, जिससे कोरोना पास भी नहीं आता है, दुरे से निकल लेता है.”
“हम तो बोल ही रहे थे,” शर्मा जी ने कहा. 
“हाँ, पर फिर भी लगा लीजिये, नहीं तो ठोलवा सब पकड़ लेगा.”
“इतना सुबह सुबह?” 
“हे हे.” 
“ऐसे मिशरवा हमको भी एक फॉरवर्ड भेजा था,” शर्मा जी ने कहा. 
“पान वाला या गुटका वाला?” 
“गुटका वाला।” 
“गुटका वाला?”
“हाँ थूकता बहुत हैं, पर फॉरवर्ड अच्छा भेजता हैं.”
“हमको तो नहीं भेजता है.” 
“अरे, आप टेलीग्राम पर हैये नहीं है की.”
“टेलीग्राम? ऊ तो कितने साल से बंद हो गया नहीं?” वर्मा जी ने एकदम आश्चर्यचकित हो कर कहा. 
“अरे, वो वाला नहीं.”
“तो फिर कौन वाला.”
“अभी अभी व्हाट्सप्प जैसा आया है.” 
“व्हाट्सप्प जैसा टेलीग्राम?” वर्मा जी के पल्ले नहीं पड़ रहा था कि शर्मा जी क्या बोल रहे थे. 
“आपके यहाँ कपडा कौन वाशिंग पाउडर में धुलता है?”
“मिसेज़ को तो सर्फ एक्सेल पसंद है. पर बहुत महंगा पड़ता है, इसलिए थोड़ा रिन के साथ मिला देते हैं.”
“हमारी मिसेज़ को अरियल पसंद है.”
“अच्छा.”
“अब जैसे अलग अलग वाशिंग पाउडर आता है…”
“अच्छा अब समझ में आया. टेलीग्राम नया टाइप का व्हाट्सअप है,” वर्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा. 
“हाँ.”
“तो आप क्या कह रहे थे?” वर्मा जी ने पुछा. 
“तो गुटका वाला मिशरवा एक ठो फॉवर्ड भेजा,”  शर्मा जी बोले. 
“अच्छा.”
“उसमें ये बताया था कि कोरोना जैसा कुछ नहीं है. पूरा का पूरा एक साज़िश है,” शर्मा जी ने कहा. 
“साज़िश? किसका?” 
“सीआईए और बिल गेट्स का.”
“एह. हम तो सुने कि चाइनीज़ लोग चमगादड़-वमगादड़ खाकर इसको फैलाया है.”
“अरे ऊ तो पुराना न्यूज़ है. अभी सुनिए.”
“अच्छा.”
“सीआईए और बिल गेट्स, मिलकर अफवाह फैलाया है कोरोना के बारे में.”
“पर वो लोग ऐसा क्यों करेगा?”
“देखिये सीआईए का तो मालूम नहीं, पर बिल गेट्स का हम समझ सकते हैं.”
“समझ सकते हैं?” वर्मा जी ने पुछा. “कैसे?” 
“अरे, अब इतना पैसा कमा लिया. माइक्रोसॉफ्ट को इतना बड़ा कंपनी बना दिया. तीन ठो बच्चा लोग भी बड़ा हो गया है उसका. घर छोड़ कर जाने के लिए तैयार है.”
“हाँ तो?” वर्मा जी के समझ में कुछ नहीं आ रहा था. 
“हम लोग के यहाँ तो बच्चा लोग जब घर भी छोड़ता है, तो माँ बाप के बारे में सोचता है. दादा दादी, नाना नानी बनाता है. इसलिए हम लोग का मन लगा रहता है और समय बीतता जाता है.”
“एकदम सही बोले आप शर्मा जी,” वर्मा जी ने कहा. कल रात को ही खबर आयी थी कि उनके सबसे छोटे बेटे चिंटू और उसकी बीवी रिंटू को, इशू होने वाला है. 
“पर अमरीका में इंडिया जैसा वैल्यूज नहीं न है. तो बिल गेट्सवा अब बोर हो गया है. इसलिए सीआईए के साथ मिलकर अफवाह फैला दिया कोरोना के बारे में.” 
“अरे बाप रे.”
“एकदम. मिश्रा जी का फॉरवर्ड कभी गलत नहीं होता है. कोरोना जैसे कुछ नहीं है. और जो है ही नहीं वो किसी को कैसे हो सकता है.”
तभी शर्मा जी के घर के अंदर से आवाज़ आयी. 
“अच्छा सुनते हैं,” मिसेज़ शर्मा बोली. “आधा दर्जन अंडा और एक डबल रोटी भी ले आइयेगा.”
“हाँ ठीक है,” शर्मा जी ने जवाब दिया. 
“अंडा?” वर्मा जी ने पुछा. “आप लोग अभी भी अंडा खाते हैं?” 
“काहे?”
“अरे आप को कोई मेनका गाँधी का अंडे वाला फॉरवर्ड नहीं भेजा क्या आज तक व्हाट्सप्प पर.” 

मिसेज़ शर्मा, मिसेज़ वर्मा एंड द रिटर्न ऑफ़ कोरोना 

शाम के छे-साढ़े छे बजे हैं. सूरज ढल चुका है. कोरोना की दूसरी वेव का प्रकोप शहर में फैल चुका है. ऐसे माहौल में, मिसेज़ शर्मा और मिसेज़ वर्मा अपने अपने घर के सामने छोटे से बगान में बैठी हुईं, सोशल डिस्टन्सिंग बनाये हुए, एक दुसरे से बातें कर रही हैं. 
आईये सुनते हैं. 
“और आप सूई ले लीं? मिसेज़ शर्मा ने पुछा. 
“अब क्या बताएं,” मिसज़ वर्मा ने जवाब दिया. “अरे परसों मिस्टर और हम गए थे. अस्पताल पहुंचे तो Compounder मिस्टर से बोलिस, आज तो ख़तम हो गया है सर.” 
“ख़तम, ख़तम कैसे हो गया?”
“हम भी वही बोले.” 
“तब तो टीका उत्सव चल रहा था न.”
“हम भी वही बोले.” 
“मोदी जी दिन में 18 घंटे काम कर रहे हैं और ई सब compounder लोग से दू ठो सुई नहीं संभल रहा है.”
“हम भी वही बोले,” मिसेज़ वर्मा ये बोलकर जैसे अटक सी गयी. 
“और आपका चुन्नू ठीक है?” मिसेज़ शर्मा ने पुछा. 
“हाँ ठीक ही है,” मिसेज़ वर्मा का जवाब आया. 
“और इशू–विशु के बारे में कुछ सोचा कि नहीं?”
“अरे क्या बताएं,” मिसेज़ वर्मा बोलीं. 
“ऐसे अभी तो टाइम भी सही था,”  मिसेज़ शर्मा बोली. 
“मतलब?”
“सबका वर्क फ्रॉम होम चल रहा है.”
“हाँ तो?”
“अरे आदमी घर से काम करता है तो थकता कम हैना. ज़्यादा ताकत रहता है ” 
“अच्छा समझे.”
“ऐसे तुमको एक बात बोलेंगे, बुरा मत मानना.” 
“अरे नहीं बोलिये, बुरा काहे मानेंगे, ” मिसेज़ वर्मा ने कहा. 
“हमारी मंझली दीदी का लड़का हैना.”
“कौन बबलू?” 
“हाँ. तो वो भी बहुत दिन तक इशू नहीं किया.” 
“अच्छा फिर?”
“फिर क्या, दवाई का आदत लग गया. बहुत मुश्किल से हुआ.” 
“अरे बाप रे.” 
“इस लिए समय रहते कर लेना चाहिए,” मिसेज़ शर्मा ने कहा. “हर चीज़ का एक उम्र होता है.” 
“ऐसे हम परसों ही पूछे उससे कि क्या प्लान है,” मिसेज़ वर्मा ने कहा. 
“क्या बोला?”
“बोला, मम्मी ऐसी दुनिया में बच्चा लाकर क्या मतलब.”
“मतलब?”
“हम समझाये, के बेटा, बच्चा कोई मतलब के लिए थोड़े पैदा करता है. बच्चा पैदा करना होता है, इसलिए पैदा करता है.”
“अच्छा. फिर क्या बोला?” मिसेज़ शर्मा ने पूछा. 
“बोला, मम्मी तुम समझ रही हो क्या बोल रही हो.”
“ओह, ऐसा बोल दिया.” 
“हाँ.”
“हम तो तुमको बोले थे, जेनयू वेनयू मत भेजो. बच्चा लोग घर से बहार डॉक्टर इंजीनियर बनने के लिए निकले तो अच्छा लगता है. हिस्ट्री पढ़ने के लिए इतना मेहनत…” 
“हाँ आप तो बोली थी. और हम भी मिस्टर को बोले थे. पर वो उधर से बोले, कब तक अपने पास बांध के रखोगी,” मिसेज़ वर्मा ने कहा.
“ऐ माँ, गाय है क्या जो बांध कर रखेंगे.”
“सही कहीं आप.” 
“हमारी बड़ी दीदी का लड़का…”
“चिंटू?” 
“हाँ. वो भी जेनयू गया था, करीब दस साल पहले.” 
“अच्छा.” 
“बस बंगाली लड़की से शादी कर लिया.” 
“अरे बाप रे. बहुत एग्रेसिव होगी वो तो?”
“हैये है कि. कच्चा चबा गयी अपनी सास को,” मिसेज़ शर्मा ने कहा.
“दीदी और जीजाजी आपके मान कैसे गए?” मिसेज़ वर्मा ने पूछा.
“शुरू में नहीं माने थे. फिर चिंटू बोला, शादी कर रहे हैं, आना है तो आईये, नहीं तो भाड़ में जाईये.”
“बच्चा लोग के सामने आदमी मजबूर हो जाता है.”
“एकदम. हम तभी राजू को जेनयू नहीं भेजे. बोले यहीं रांची यूनिवर्सिटी में पढ़ लो.” 
“एकदम ठीक की.” 
“तभी मोदी जी कहते हैं, हार्डवर्क इस मोर इम्पोर्टेन्ट दैन हारवर्ड,” मिसेज़ शर्मा ने कहा. 
“कहेंगे नहीं. वो तो पूरा पोलिटिकल साइंस पढ़े हैं,” मिसेज़ वर्मा ने कहा. 
तभी मिसेज़ वर्मा के घर के अंदर से आवाज़ आयी. “शीला, गप मारना ख़तम करो. भूक लगी है. डिनर दे दो.” 
“मिस्टर बुला रहे हैं लगता है?” मिसेज़ शर्मा ने कहा. 
“हाँ.”
“पर पौने सात बजे डिनर?”
“अब क्या बताएं.” 
“क्या हुआ?”
“अरे छोटी बहु बोल दी है कि पापा आपका तोंद निकल गया है. अच्छा नहीं लग रहा है.” 
“ओह चुन्नू की मिसेज़ ऐसा बोल दी.” 
“हाँ.”  
“तो?”
“इसलिए, आजकल जल्दी खा रहे हैं…उसको का बोलते हैं.” 
“इंटरमिटेंट फास्टिंग.” 
“हाँ वही करने की कोशिश कर रहे हैं.”
“अच्छा.”
“इनको न हमेशा से मन था कि एक बेटी भी हो,” मिसेज़ वर्मा ने थोड़ा शर्मा के कहा. “इस लिए छोटी बहु का बात इतना ध्यान से सुनते हैं.” 
“अच्छा.”
“तीन लड़का के बाद, बोले एक बार और ट्राई करते हैं, हो सकता है इस बार बेटी हो जाए.” 
“अच्छा.” 
“पर हम हाथ खड़ा कर दिए.”
“अच्छा.” 
“बोले, और ताकत नहीं है.” 
“अच्छा.” 
“पहले ही तीन बच्चा संभालना…” 
“शीला,” मिसेज वर्मा के घर के अंदर से फिर आवाज़ आयी. 
“अच्छा तो हम चलते हैं,” मिसेज़ वर्मा ने कहा. 
“फिर कब मिलयेगा?” मिसेज़ शर्मा ने पुछा. 
“जब आप कहियेगा.” 
“जुम्मे रात को?”
“नहीं आधी रात को.”
 

राजा बाबू से मंडेला — निर्मल आनंद से इंटेलेक्चुअल सटिस्फैक्शन तक का सफर  

कल शाम को चैनल बदलते बदलते, या फिर ये कहिये कि OTT बदलते बदलते, नज़र एक तमिल फिल्म पर आकर टिकी. नाम था, मंडेला
खाना खाते खाते फिल्म का पहला आधा घंटा देखा. मज़ा आया. फिल्म एक ब्लैक कॉमेडी है और ब्लैक कॉमेडी और हमारा तो पुराना याराना है. खैर, फिर कुछ काम आ गया इसलिए पूरी फिल्म नहीं देख पाया. एक-आद दिन में निपटा दूंगा. 
रात को तकिये पर सर रखने से लेकर नींद आने तक, मेरे दिमाग में एक ख्याल आया. आजकल हमारे लिए एक हिंदी फिल्म देखना बहुत ही मुश्किल हो गया है. 
एक ज़माना था जब हम सिनेमा निर्मल आनंद के लिए देखते थे. अब हम फिल्म निर्मल आनंद के साथ साथ, इंटेलेक्चुअल सटिस्फैक्शन के लिए भी देखते हैं. और जब तक इंटेलेक्चुअल सटिस्फैक्शन नहीं होता तब तक निर्मल आनंद भी नहीं आता है. 
अब जनवरी 21, 1994, की बात ले लीजिए. राँची के सुजाता सिनेमा में डेविड धवन कृत राजा बाबू लगी थी. हम लोग फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने पहुंचे. लाइन में लगे और थोड़ी धक्कम धुक्की होने के बाद हम लोगों को ड्रेस सर्किल की टिकेटें मिल गयी. ये वो दिन थे जब फिल्म देखने से ज़्यादा मज़ा फिल्म की टिकट मिलने में आता था. 
फिल्म शुरू हुई. वो गोविंदा का ज़माना था. और अगर साथ में अगर करिश्मा कपूर, कादर खान, शक्ति कपूर, समीर, आनंद मिलिंद और डेविड धवन, भी हों, फिर तो सुभान अल्लाह. गोविंदा के अलावा ये सभी लोग राजा बाबू से जुड़े थे. पर फिल्म में वो मज़ा नहीं था जितना कि गोविंदा की फिल्मों में अमूमन हुआ करता था. 
दो घंटे से ऊपर गुज़र चुके थे और पूरे हॉल में एक सनाटा सा छाया हुआ था. लग ही नहीं रहा था कि गोविंदा की फिल्म चल रही है. उसी साल आयी द्रोहकाल, जो कि एक ज़बरदस्त आर्ट मूवी थी, के शोज में, उस दिन से ज़्यादा हल्ला हुआ था. (जी हाँ हम उस समय भी आर्ट फ़िल्में देखा करते थे वो भी सिनेमा हाल में जाकर). 
फिल्म ख़त्म होने से कुछ समय पहले, परदे पर आया उस साल का एकदम सुपरहिट गाना. सरकाये ल्यो खटिया जाड़ा लगे. और पब्लिक ने तब तक गोविंदा और डेविड धवन से हुआ सब गिला शिकवा माफ़ कर दिया. कुमार साणु और पूर्णिमा के इस गाने ने एकदम बवाल मचा दिया. अगर अंग्रेजी में कहें तो द ऑडियंस वास् डांसिंग इन द aisles. 
वो ज़माना था डबल मीनिंग गानों का और सरकाये ल्यो खटिया जाड़ा लगे, मेरे हिसाब से, इन डबल मीनिंग गानों की लिस्ट में नंबर दो की पायदान पर आता है. आप पूछेंगे कि नंबर वन गाना कौन सा था. अब ये भी कोई बताने वाले बात है. हिंदुस्तान में रहकर, हिंदी सिनेमा देखने के बाद अगर इतना भी नहीं पता… तो आप एंटी नेशनल, टुकड़े टुकड़े गैंग में शामिल हो चुके लुट्येन्स दिल्ली के आखरी लिबरल हैं. 
ख़ैर, आप भी ये सोच रहेंगे के मैं भी कहाँ मंडेला से शुरू करके राजा बाबू तक पहुँच गया. शायद ये समझाने की कोशिश कर रहा था कि उस ज़माने में फिल्मों से सीधी सीधी अपेक्षा होती थी. 
फिल्म का हीरो थोड़ा रोमांस करेगा, गाना गायेगा, नाचेगा, विलेन की पिटाई करेगा और अगर इन सबके ऊपर अगर कॉमेडी भी करे, फिर तो पूरा पैसा वसूल.
रही हीरोइन की बात तो वो भी रोमांस करेगी, गायेगी, नाचेगी और थोड़ा रोयेगी. 
अगर फिल्म में विलेन है तो वो हीरो-हीरोइन के बीच में अपनी टाँगे अड़ाएगा. जैसा की मोहनीश बहल मैंने प्यार किया में कहते हैं, एक जवान लड़का और एक जवान लड़की कभी अच्छे दोस्त नहीं हो सकते. पहले कुछ इस किस्म उलटी-पुलटि बात करेगा और अंत में हीरोइन के साथ थोड़ी बहुत बदतमीज़ी भी, जिसके बाद हीरो आकर उसकी पिटाई करेगा. 
हीरो की माँ रोएगी और अपने बच्चे के लिए अच्छी नौकरी और अच्छी बीवी की दुआ करेगी. 
और फिर, एवरीवन विल लिव हैप्पिली एवर आफ्टर. 
अगर किसी भी फिल्म में इन सब चीज़ों का ठीक ठाक सा मिश्रण मिल जाता था, तो लोग उस फिल्म को दो एक बार देखकर चला ही देते थे. और हम भी ऐसी पब्लिक का हिस्सा थे काफी सालों तक. कम से कम 1993 से 1999 तक, जब हम रांची के सिनेमा घरों में अक्सर सिनेमा फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखा करते थे. (करीब दस साल हो गए कोई भी फिल्म फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखे हुए. अब जब आराम से ऐसा किया जा सकता है, तो मन नहीं करता है.) 


1999 के बाद चीज़ें बदली. थोड़ा पढ़ लिख ज़्यादा गये. थोड़ा अंग्रेजी सिनेमा देख लिया. और 2006 से 2009 के बीच में बहुत सारा इंटरनेशनल सिनेमा भी.
अंग्रेजी फ़िल्में देखने के बाद ये पता चला की उनकी फ़िल्में हमारे फिल्मों से कितनी बेहतर बनती हैं, या फिर हम लोग सीन बी सीन कॉपी करते हैं. अब शायद पॉसिबल नहीं है पर एक ज़माने में तो होता ही था. यकीन नहीं आता तो कभी 1934 की हॉलीवुड फिल्म, इट हप्पेनेड वन नाईट देखे और इसके बाद महेश भट की 1992 की फिल्म दिल है के मानता नहीं. सीन बाय सीन कॉपी है.  
यहाँ तक कि इट हप्पेनेड वन नाईट के डायलॉग्स को सीधे सीधे हिंदी में ट्रांसलेट किया गया है. और आश्चर्य की बात तो ये है कि डायलाग लिखे थे मशहूर लेखक शरद जोशी जी ने. 
जब इंटरनॅशनल सिनेमा देखा तो ये समझ आया की सीरियस मुद्दों पर भी फ़िल्में बनायीं जा सकती थी. और रोमांस, नाच, गाना, मार धाड़ के अलावा, फिल्मों में नुआन्स (nuance) भी हो सकता है. और निर्मल आनंद के अलावा फ़िल्में इंटेलेक्चुअल सेटिफेक्शन भी दे सकती हैं. 
और धीरे धीरे इंटेलेक्चुअल सटिस्फैक्शन हावी होता गया. केवल ये काफी नहीं था कि स्क्रीन पर क्या चल रहा है. ये भी जानना ज़रूरी था की फिल्म के डायरेक्टर और लेखक की पॉलिटिक्स क्या है. उन्हें इंस्पिरेशन कहाँ से मिला है. फिल्म के डायलॉग्स में दम है की नहीं. वगैरह वगैरह. एक फिल्म देखने में और एक किताब पढ़ने में ज़्यादा अंतर नहीं रह गया. 
और इसका नतीजा ये हुआ की धीरे धीरे हिंदी फ़िल्में देखना एकदम बंद सा हो गया है, क्यूंकि किसी भी फिल्म से जो उमीदें थी, वो बहुत ज़्यादा बढ़ गयी. और जैसे जैसे हमारा टेस्ट बदला वैसे वैसे गोविंदा का करियर भी ख़तम होता चला गया. क्यूंकि गीता का सार है, परिवर्तन ही इस दुनिया का नियम है. 
अब खोज रहती है अच्छी फिल्मों की. भाषा चाहे कोई भी हो, क्यूंकि मर्द को दर्द नहीं होता और इंटेलेक्चुअल सटिस्फैक्शन ज़रूरी है.