शिक्षित बेरोज़गारी के दस साल 

आज शिक्षित बेरोज़गारी के दस साल पूरे हो रहे हैं. 1 अप्रैल 2012 से शुरू किया था. शुरू क्या किया था, बस हो गया था.
आराम से बैठकर तनख्वाह उठाने में शर्म सी आने लगी थी और किताब को किसी भी तरह से पूरा करके छपवाने का जुनून सिर पर सवार था.
ये तो कभी नहीं सोचा था कि शिक्षित बेरोज़गारी में यूँही दस साल गुज़र जाएंगे. हल्का फुल्का प्लान ये था कि किताब लिखेंगे, छपवाने की कोशिश करेंगे और फिर उसके बाद देखा जाएगा.
अब ज़िन्दगी कोई कंप्यूटर प्रोग्राम तो है नहीं कि जब तक सारी कोडिंग ठीक से न की गयी हो, तो चलेगी नहीं. इसलिए चल गयी.
किताब तो छप गई. एक नहीं तीन. अंग्रेज़ी वालों ने ट्राइलॉजी बना दिया. और धीरे धीरे काम भी आने लगा. पहले थोड़ा थोड़ा और फिर अचानक से बहुत सारा.
जब किताब छप गयी, फिर अलग अलग अख़बारों और websites पर छपने के जूनून ने तूल पकड़ा. एक समय ये भी था जब हफ़्ते में दस बारह कॉलम तो छप ही जाते थे.
दैनिक जागरण से लेकर डेक्कन क्रॉनिकल तक और बैंगलोर मिरर से लेकर बीबीसी तक, सब जगह मेरे लेख छपे. हिंदी में अर्थशास्त्र पर लिखने की आदत भी बनायी. (जी. GST को माल और सेवा कर कहते हैं और फिस्कल डेफिसिट को राजकोषीय घाटा).
इसके अलावा काफी नामचीन प्रबंधन विद्यालयों (business schools) में लेक्चर देने का मौका भी मिला. अहमदाबाद से बेंगलुरु तक, मुंबई से मणिपाल तक और रोहतक से लेकर रांची तक.
आजकल थोड़ा स्लो चल रहा हूँ. सलीम ख़ान को कहीं ये कहते सुन लिया था कि पैसे ना कहने के मिलते हैं. तो अपनी ज़िन्दगी में ये प्रयोग कर रहा हूँ. आशा करता हूँ आने वाले सालों में ख़ान साहब की कही बात थोड़ी बहुत तो सही निकलेगी.
इस सफर में दिल्ली के बाहर के संपादकों ने बहुत साथ दिया, खासकर मुंबई और बेंगलुरु के संपादकों ने. यहाँ ये भी कहना ठीक रहेगा कि दसवे साल में दिल्ली का दरवाज़ा भी धीरे धीरे खुलने लगा है, अब देखना ये है कि ये दरवाज़ा कितना खुलता है और कब तक खुला रहता है.
आजकल मन में ये सवाल बहुत आता है कि शिक्षित बेरोज़गारी का निर्णय सही था या फिर नौकरी करते रहना चाहिए था?
लगभग हर दिन लिख कर दुनिया को ये चिल्ला चिल्ला के बताना के भाई पढ़ो, हमने लिखा है, इस का अंत में क्या हश्र होगा?
हमारे लिखने से कभी कुछ बदलता भी है क्या?  क्या कीबोर्ड तलवार से वाकई ज़्यादा शक्तिशाली है? या फिर paywall ने बीच में आकर गेम बजा डाली है?
या फिर सोशल मीडिया के ज़माने में, where you can flood WhatsApp with shit, दो एक लोगों के लिखने या न लिखने से क्या ही फरक पड़ता है?
या फिर क्या कोई भी काम करने के लिए किसी गहरी वज़ह का होना ज़रूरी होता है क्या? या फिर कुछ लोग साबुन बेचते हैं, और कुछ लोग शब्द? और ग़लतफहमी तो सबको होती है. मुझे भी है. नहीं तो मैं अभी भी किसी आईटी कंपनी का मुलाज़िम होता.
ऐसे सवालों के कोई आसान जवाब तो होते नहीं और ज़िन्दगी  में केवल सोच प्रतितथ्यात्मक (counterfactual) हो सकती है.

अब इस बात पर एक शेर याद आ गया. जैसा चचा ग़ालिब कह गए हैं:

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता .

और अंत मे नास्तिक होते हुए भी ये प्रार्थना करता हूँ कि पाठकों, सम्पादकों और सबसे ज़्यादा प्रबंधकों और मुनीमों की मुझ पर कृपा बनी रहे. कहिये तो Chivas Regal चढ़ा आता हूँ.
हाँ और शिक्षित बेरोज़गारी की दो चीज़ें हमेशा मुझे प्रेरित करती रही रहेंगी, एक तो इसकी आज़ादी और दूसरी केवल अपने प्रति और अपने पाठकों के प्रति जवाबदेह होना.
अब हर दिन तीन से चार बजे तक सोना का मज़ा तो वो ही जानते हैं जो हर दोपहर को सोते हैं. आप भी कभी करके देखिए, मज़ा आएगा. और जब आप सो कर उठेंगे मुझसे मिलिएगा ज़रूर, बुत बनकर बैठेंगे.
मैं शब्द बेचता हूँ. आप ज़रूर खरीदते रहिएगा क्यूंकि अब बेरोज़गारी हमारे खून के ज़र्रे ज़र्रे में बस चुकी है.