और फिर शुरू हुआ ममता जी का छाती वाला डांस…

साल था 1994.

श्री विष्णु सिनेमा में राजकुमार की बेताज बादशाह लगने वाली थी. और उस ज़माने जैसा के अक्सर होता था, हम भी पहुंचे वहां फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने.

और राजकुमार की कुछ बात ही निराली थी.

ये वो समय था, जब बच्चन बूढ़े हो चले थे, और खानों की टोली ने अभी तक हिंदी सिनेमा पर अपना दबदबा बनाया नहीं था.

तो हीरो थे राजकुमार और उनकी फिल्मों की जैसी ओपनिंग लगती थी रांची में, वैसी किसी की नहीं लगती थी.
अब हुआ यूं के फिल्म का प्रिंट आया नहीं था, पर टिकटें बेचीं जा चुकी थी और खरीदी जा चुकी थी. ११ से एक बज गया और तब हमने ये सोचा के अब टिकट बेच देनी चाहिए और वापस कॉलेज, जो की बगल में ही था, जाना चाहिए.
जैसी ही टिकट बेचने लगे, किसी ने चिलाया, प्रिंट आ गया है, प्रिंट आ गया है.

प्रिंट आ गया था. और उसकी पूजा भी हो चुकी थी. डब्बे पर किसी पंडित ने लाल तिलक भी लगा दिया था.
कुछ समय में पिक्चर शुरू हुई. और लगभग ३० में ये समझ आ गया, के फिल्म काफी बकवास है. पर अब क्यूंकि पैसे खर्च कर चुके थे, तो फिल्म देखना तो लाज़मी था.(Sunk Cost Fallacy)

और मह्त्वपूर्ण बात ये थी की ममता कुलकर्णी का गाना आया नहीं था.

कौन सा? अरे वही वाला … आपने भी सुना होगा… “चूड़ियां बजाऊंगी प्रेम धुन गाऊँगी…

और फिर शुरू हुआ ममता जी का छाती वाला डांस…

और साथ में शुरू हुई सीटियां, चिल्लम चिल्ली और गाली गलौच जो की केवल ९० के दशक में एक छोटे शहर के सिनेमा घर में सुनी जा सकती थी…

एक विशेष टिपण्णी ये रही के अगर आपने फ्रंट रौ में बैठ कर ममता कुलकर्णी को नहीं देखा, तो क्या देखा…
अब यूँ हुआ के हमारे सामने एक नव विवाहित दम्पति बैठा था. फिल्म में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. पर करे भी तो क्या, कोने की टिकेटें नहीं मिली थी.

इधर ममता गा रही उधर बेचैनी बढ़ रही की (नव विवाहित दम्पति की, मेरी नहीं)… पांच मिनट गाना चला…और फिर अचानक से सब शांत हो गया… फिल्म तो चल रही थी…. पर लोग देख नहीं रहे थे..

इस बीच, नव विवाहित दम्पति खड़ा हुआ, और दरवाज़े के तरफ चलने लगा.

और फिर पीछे से एक ज़ोर से आवाज़ आयी, लगता है आज रात को खूब चूड़ी बजेगा…