मन के अंदर की मन की बात

कल से शिक्षित बेरोज़गारी का दसवां साल शुरू होने वाला है

जब ये सब शुरू हुआ था तब नहीं सोचा था कि नौकरी से ज़्यादा वर्ष शिक्षित बेरोगज़ारी में गुज़रेंगे. शायद मिडिल क्लास होने कि वजह से एक छोटी सी नौकरी की तलबगारी बनी हुई थी.

पर नौ साल वर्क फ्रॉम होम करने के बाद जो भी थोड़ी बहुत फीलिंग थी नौकरी की तरफ, वो पूरी तरह से ख़तम हो चुकी है. या फिर ये कहना चाहिए कि हम नौकरी करने के लायक रह ही नहीं गए है. प्रबंधन का प्रबंधन करना हमारे बस की बात नहीं है.

दुनिया भर के मैनेजमेंट गुरु entrepreneurship पर मोटी मोटी किताबें लिखते हैं, पर कोई ये नहीं बताता कि एक अच्छी नौकरी में, बॉस के ईगो और सहकर्मियों की असुरक्षाओं को सँभालते हुए, और इन्फ्लेशन से कम इन्क्रीमेंट पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते हुए, ईमानदार कैसे बना रहा जाए?

खैर, हमें कौन सा हर महीने EMI देना है कि इन चीज़ों की चिंता की जाए, न ही बच्चों को पढ़वाना है या उनकी शादी के लिए पैसे जमा करने हैं. आपको ये सब करना है, इसलिए, बने रहिये. पिच पर नज़र बनाये रखिये और विकेट बचाये रखिये. कोई भी कभी भी आपकी तरफ गूगली फेंक सकता है, इसलिए उनकी कलाइयों पर ध्यान बनाये रखिये.

समय बहुत कठिन चल रहा है. पहले तो न्यूज़ मीडिया की हालत ख़राब है और ऐसी ख़राब हालत में गेम पूरी तरह से बदल चुका है. हम जैसे अदना लोगों को भी अब नेटफ्लिक्स इत्यादि के साथ compete करना पड़ रहा है.

compete, शायद सही शब्द नहीं है यहाँ पर, पर कहने का मतलब ये है कि लोगों के पास अब भी उतना ही समय है जितना पहले था, पर अब करने को ज़्यादा चीज़ें हैं और वो भी फ़ोन पर. और फ़ोन पर अगर आप गेम ऑफ़ थ्रोन्स से लेकर मिर्ज़ापुर देख सकते हैं, या फिर paaarti हो रही है वाला मीम बना सकते हैं, फिर आप हमारे लिखे को पढ़ने की मगज़मारी क्यों करेंगे. शायद हम भी नहीं करते.

सच बोलिये तो हमने भी न्यूज़ मीडिया को पढ़ना तो लगभग बंद ही कर दिया है. पर हमारी वजहें कुछ अलग हैं.

माओत्से तुंग के ‘परमानेंट रेवोल्यूशन’ का भारतीय रूप हर सुबह उठकर नहीं देखा जाता. जिन चीज़ों पर बातें होनी चाहिए उन पर बात हो ही नहीं रही, और जिन चीज़ों का कोई मतलब नहीं है, उन पर फलसफे जड़े जा रहे हैं.

खैर, अच्छी बात ये है कि हमने बच्चे नहीं पैदा किये हैं और जिन्होंने किये हैं वो तो व्हॉट्सऐप पर मस्त हैं. इसलिए सब चिल कर रहे हैं, बुत बनकर बैठे हैं. जो बात दिख ही नहीं रही, वो समझ में कैसे आएगी!

प्लान बी ये है कि अगर शिक्षित बेरोज़गारी नहीं चलती रही तो फिर क्राइम फिक्शन लिखेंगे और इन किताबों में उन सभी लोगों का, जिनका असल ज़िन्दगी में गला दबाने का मन किया था, उनको एक-एक करके मारेंगे.

कम से कम मन की दुनिया में मन की बात करने की आज़ादी अब भी बनी हुई है.

और शायद इस मन के अंदर की मन की बात में, आप भी हों. तैयार रहिएगा. बुत बनकर मत बैठे रहिएगा.