आराम से बैठकर तनख्वाह उठाने में शर्म सी आने लगी थी और किताब को किसी भी तरह से पूरा करके छपवाने का जुनून सिर पर सवार था.
अब ज़िन्दगी कोई कंप्यूटर प्रोग्राम तो है नहीं कि जब तक सारी कोडिंग ठीक से न की गयी हो, तो चलेगी नहीं. इसलिए चल गयी.
दैनिक जागरण से लेकर डेक्कन क्रॉनिकल तक और बैंगलोर मिरर से लेकर बीबीसी तक, सब जगह मेरे लेख छपे. हिंदी में अर्थशास्त्र पर लिखने की आदत भी बनायी. (जी. GST को माल और सेवा कर कहते हैं और फिस्कल डेफिसिट को राजकोषीय घाटा).
इसके अलावा काफी नामचीन प्रबंधन विद्यालयों (business schools) में लेक्चर देने का मौका भी मिला. अहमदाबाद से बेंगलुरु तक, मुंबई से मणिपाल तक और रोहतक से लेकर रांची तक.
लगभग हर दिन लिख कर दुनिया को ये चिल्ला चिल्ला के बताना के भाई पढ़ो, हमने लिखा है, इस का अंत में क्या हश्र होगा?
या फिर सोशल मीडिया के ज़माने में, where you can flood WhatsApp with shit, दो एक लोगों के लिखने या न लिखने से क्या ही फरक पड़ता है?
अब इस बात पर एक शेर याद आ गया. जैसा चचा ग़ालिब कह गए हैं:
हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता .
और अंत मे नास्तिक होते हुए भी ये प्रार्थना करता हूँ कि पाठकों, सम्पादकों और सबसे ज़्यादा प्रबंधकों और मुनीमों की मुझ पर कृपा बनी रहे. कहिये तो Chivas Regal चढ़ा आता हूँ.
हाँ और शिक्षित बेरोज़गारी की दो चीज़ें हमेशा मुझे प्रेरित करती रही रहेंगी, एक तो इसकी आज़ादी और दूसरी केवल अपने प्रति और अपने पाठकों के प्रति जवाबदेह होना.
अब हर दिन तीन से चार बजे तक सोना का मज़ा तो वो ही जानते हैं जो हर दोपहर को सोते हैं. आप भी कभी करके देखिए, मज़ा आएगा. और जब आप सो कर उठेंगे मुझसे मिलिएगा ज़रूर, बुत बनकर बैठेंगे.
मैं शब्द बेचता हूँ. आप ज़रूर खरीदते रहिएगा क्यूंकि अब बेरोज़गारी हमारे खून के ज़र्रे ज़र्रे में बस चुकी है.