और मिसेज़ (Mrs) वगैरह गांव में है क्या?

सितम्बर 2006 से मैं प्रभादेवी, मुंबई, के एक छोटे से कमरे में रह रहा हूँ.  मुंबई की कूल भाषा में ऐसे कमरों को स्टूडियो अप्पार्टमेन्ट कहते हैं, पर न ही ये स्टूडियो हैं न अपार्टमेंट. बस एक छत है जो अब तक गिरी नहीं और एकदम तेज़ बरसात में भी पानी अंदर नहीं आता है.
मेरे कमरे में चार अलमारियां हैं जिसमें किताबें हैं. एक और अलमारी है, जिसमें में वो सब चीज़ें हैं जो किसी दिन फेकनी हैं, कुछ पुराने लैपटॉप, फ़ोन और बहुत सारे कपड़े जो अब फिट नहीं होते हैं. 
इसके अलावा एक टेबल और दो कुर्सियां हैं, जो भी किताबों से खचाखच भरी हुई हैं. और एक पलंग है. जिस पर में उठता, बैठता, खाता, लिखता और सोता हूँ. 
अगर सरल भाषा में कहूँ तो थोड़ा अलग है. जो भी जब भी चाहिए वो सब सामने ही रखा रहता है. 
और इस कमरे में जब भी कोई आता है तो, थोड़ा चकित सा रह जाता है. अभी कुछ दिन पहले एक इलेक्ट्रीशियन आया. कमरे के अंदर आते ही थोड़ा भौचक्का गया, पर कुछ बोला नहीं.
दो ट्यूबलाइट बदलनी थी. वो बदलने और पैसे लेने के बाद, वो दरवाज़े पर रुक गया. उससे रहा नहीं गया और उसने पुछा:
“आप लाइब्रेरी चलाते हैं क्या?”
“नहीं,” मैंने जवाब दिया. 
“तो फिर इतनी सारी किताबें?”
“मेरी हैं.”
“हम्म्म. खरीदे हैं?”
“हाँ.”
“आप करते क्या हैं?”
“राइटर हूँ.”
“हाँ वो तो ठीक है, पर घर कैसे चलता है?” वो पूछता गया. 
“राइटिंग से.”
“सबका चल सकता है क्या?”
“सबका तो पता नहीं, पर मेरा चल जाता है.”
“और मिसेज़ (Mrs) वगैरह गांव में है क्या?”
“नहीं है.”
“गुज़र गयी क्या?”
“नहीं, मैंने कभी शादी नहीं की.” 
“तभी.” 
“तभी क्या?” मैंने पुछा. 
“चल जाता है.”
“शायद.”
“लेकिन सर, एक बात बोले, बुरा मत मानियेगा,” उसने कहा. 
“बोलिये.”
“घर तो बीवी और बच्चों से ही बनता है.”

मैं मुस्कुराया और चुप रहा. ऐसी फंडामेंटल बातों पे एक अजनबी आदमी से बहस करना और उसे अपनी ज़िन्दगी का फलसफा समझाना, सही नहीं समझा.  उसने भी हिंट लिया, खुदहाफिज़ कहा और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया. 
ये पहला व्यक्ति नहीं है जो मेरे कमरे को देख कर इतना जिज्ञासु हुआ है. मेरे पडोसी बहुत सालों से ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि ये आदमी दिन भर अपने कमरे में बंद रहकर आखिर करता क्या है और इसके पास इतनी सारी अमेज़न की deliveries क्यों होती हैं. 
और रही शादी और बच्चों की बात ये तो इसका महत्व मुझे कई लोग पिछले दो दशकों से समझा रहे हैं. 
जब मेरे पिताजी ज्योतिष में रूचि रखते थे, तो मेरी माँ अक्सर कहा करती थी, तुम्हारी शादी लेट होगी और तुम्हारे दो बच्चे होंगे. ये अब तक तो सच नहीं हुआ. पर क्यूंकि ये बहुत ही ओपन एंडेड पूर्वानुमान है, आने वाले समय में भी सही हो सकता है. जैसा की जेम्स बांड कह गए हैं, नेवर से नेवर. 
मेरे नानाजी एक कदम आगे गए और मेरे शादी न करने पर प्रश्न किया, क्या इसको लड़कियां पसंद नहीं है? ये करीब 15 साल पुरानी बात है, जब मीडिया ने नया नया समलैंगिक लोगों के बारे में बात करना शुरू किया था. 
मेरे पिताजी के भाई-बहनों ने जब मेरे ब्याह न करने पर काफी प्रश्न उठाये तो उन्होंने ये कह डाला, भाई अगर मुझे मंडप में बैठना होता तो मैं अब तक बैठ गया होता.
बाकी, जैसा की एक्सपेक्टेड होता है, थोड़ी बहुत इमोशनल ब्लैकमेलिंग रिश्तेदारों की तरफ से तो हुई ही. 
अब कोई कुछ नहीं पूछता है. अलग करते करते, मैं इतना प्रेडिक्टेबल हो गया हूँ कि मेरा गॉसिप वैल्यू बिलकुल गिर गया है. जाता हुआ समय सब कुछ बदल देता है. 
और अंत में, मजरूह सुल्तानपुरी से क्षमा मांगते हुए, ये दो पंक्तियाँ:
 
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर,
न लोग ही साथ आये, न ही कारवाँ बना.